Sunday, June 5, 2011

खिले हैं पलाश

खींच लिया बरबस
उस जादू ने -
चलते चलते ठिठक गया
चकित अचानक देखी जगमग
रह गया देखता ठगा ठगा -सा
चाहा कुछ बोलूँ पर बोल नहीं पाया ।
चाहा कर लूं बंद
उस रूप रंग को पलकों में
पर पलकें बंद नहीं हुईं !
चाहा लिख दूँ कविता,
पर लिखी नहीं गई !
लिखता भी क्या !
वह तो स्वयं साकार
इश्वर की कविता!
विद्याधर जोशी
इ-७/एल.आई.जी.३१८/अरेरा कालोनी भोपाल (म.प्र।)
डॉ.जैजैराम आनंद द्वारा टंकित ओर श्री यतीन्द्रनाथ राही के निर्देशानुसार

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